Book Name:Tahammul Mizaji ki Fazilat
﴾2﴿...किसी शख़्स ने ह़ज़रते सलमान फ़ारसी رَضِیَ اللّٰہُ عَنْہ को गाली दी । उन्हों ने फ़रमाया : अगर क़ियामत के दिन मेरे गुनाहों का पल्ला भारी है, तो जो कुछ तुम ने कहा, मैं उस से भी बुरा हूं और अगर मेरा वोह पल्ला हल्का है, तो मुझे तुम्हारी गाली की कोई परवा नहीं । (اتحاف السادۃ ، ۹ / ۴۱۶, अज़ : ग़ुस्से का इ़लाज, स. 12)
﴾3﴿...किसी शख़्स ने ह़ज़रते शाबी رَحْمَۃُ اللّٰہ عَلَیْہ को गाली दी । आप ने फ़रमाया : अगर तू सच केहता है, तो अल्लाह पाक मेरी मग़फ़िरत फ़रमाए और अगर तू झूट केहता है, तो अल्लाह पाक तेरी मग़फ़िरत फ़रमाए । (इह़याउल उ़लूम, 3 / 212, अज़ : ग़ुस्से का इ़लाज, स. 12)
صَلُّوْا عَلَی الْحَبِیْب! صَلَّی اللّٰہُ عَلٰی مُحَمَّد
क़ुरआने करीम से मुतअ़ल्लिक़ निकात
* क़ुरआने मजीद को जुज़्दान व ग़िलाफ़ में रखना अदब है, सह़ाबए किराम व ताबेई़ने इ़ज़्ज़ाम رَضِیَ اللّٰہُ عَنْہُمْ اَجْمَعِیْن के ज़माने से इस पर मुसलमानों का अ़मल है । (बहारे शरीअ़त, ह़िस्सा : 16, स. 139) * क़ुरआने मजीद के आदाब में येह भी है कि उस की त़रफ़ पीठ न की जाए, न पाउं फैलाए जाएं, न पाउं को उस से ऊंचा करें, न येह कि ख़ुद ऊंची जगह पर हो और क़ुरआने मजीद नीचे हो । (ऐज़न) * लुग़त व नह़्वो सर्फ़ (तीनों उ़लूम) का एक (ही) मर्तबा है, इन में हर एक (इ़ल्म) की किताब को दूसरे की किताब पर रख सकते हैं और इन से ऊपर इ़ल्मे कलाम की किताबें रखी जाएं, उन के ऊपर फ़िक़्ह और अह़ादीस व मवाइ़ज़ व दावाते मासूरा (यानी क़ुरआन व अह़ादीस से मन्क़ूल दुआ़एं) फ़िक़्ह से ऊपर और तफ़्सीर को उन के ऊपर और क़ुरआने मजीद को सब के ऊपर रखिए । क़ुरआने मजीद जिस सन्दूक़ में हो, उस पर कपड़ा वग़ैरा न रखा जाए । (फ़तावा आ़लमगीरी, जि. 5, स. 323-324) * किसी ने मह़्ज़ ख़ैरो बरकत से लिए अपने मकान में क़ुरआने मजीद रख छोड़ा है और तिलावत नहीं करती, तो गुनाह नहीं बल्कि उस की येह निय्यत बाइ़से सवाब है । (फ़तावा क़ाज़ी ख़ान, जि. 2, स. 378) * बे ख़याली में क़ुरआने करीम अगर हाथ से छूट कर या त़ाक़ वग़ैरा पर से ज़मीन पर तशरीफ़ ले आया (यानी गिर पड़ा), तो न गुनाह है, न कोई कफ़्फ़ारा । * गुस्ताख़ी की निय्यत से किसी ने مَعَاذَ اللّٰہ क़ुरआने पाक ज़मीन पर दे मारा या ब निय्यते तौहीन इस पर पाउं रख दिया, तो काफ़िर हो गई । * अगर क़ुरआने मजीद हाथ में उठा कर या उस पर हाथ रख कर ह़ल्फ़ या क़सम का लफ़्ज़ बोल कर कोई बात की, तो येह बहुत सख़्त क़सम हुई और अगर ह़ल्फ़ या क़सम का लफ़्ज़ न बोला, तो सिर्फ़ क़ुरआने करीम हाथ में उठा कर या उस पर हाथ रख कर बात करना, न क़सम है, न इस का कोई कफ़्फ़ारा । (फ़तावा रज़विय्या मुख़र्रजा, जि. 13, स. 574, 575, मुलख़्ख़सन)
صَلُّوْا عَلَی الْحَبِیْب! صَلَّی اللّٰہُ عَلٰی مُحَمَّد