Book Name:Ikhtiyarat-e-Mustafa (12Shab)
فَلَا وَ رَبِّكَ لَا یُؤْمِنُوْنَ حَتّٰى یُحَكِّمُوْكَ فِیْمَا شَجَرَ بَیْنَهُمْ ثُمَّ لَا یَجِدُوْا فِیْۤ اَنْفُسِهِمْ حَرَجًا مِّمَّا قَضَیْتَ وَ یُسَلِّمُوْا تَسْلِیْمًا(۶۵))پ۵،النسآء:۶۵(
तर्जमए कन्ज़ुल इ़रफ़ान : तो ऐ ह़बीब ! तुम्हारे रब की क़सम ! येह लोग मुसलमान न होंगे जब तक अपने आपस के झगडे़ में तुम्हें ह़ाकिम न बना लें फिर जो कुछ तुम ह़ुक्म फ़रमा दो अपने दिलों में उस से कोई रुकावट न पाएं और अच्छी त़रह़ दिल से मान लें ।
पारह 10, सूरतुत्तौबा की आयत नम्बर 29 में इरशादे ख़ुदावन्दी है :
قَاتِلُوا الَّذِیْنَ لَا یُؤْمِنُوْنَ بِاللّٰهِ وَ لَا بِالْیَوْمِ الْاٰخِرِ وَ لَا یُحَرِّمُوْنَ مَا حَرَّمَ اللّٰهُ وَ رَسُوْلُهٗ) پ۱۰،التوبۃ:۲۹(
तर्जमए कन्ज़ुल इ़रफ़ान : वोह लोग जिन्हें किताब दी गई उन में से जो अल्लाह पर ईमान नहीं लाते और न ही आख़िरत के दिन पर और न वोह उन चीज़ों को ह़राम क़रार देते हैं जिन्हें अल्लाह और उस के रसूल ने ह़राम किया है ।
पारह 28, सूरतुल ह़श्र की आयत नम्बर 7 में इरशादे ख़ुदावन्दी है :
(پ۲۸،الحشر:۷) وَ مَاۤ اٰتٰىكُمُ الرَّسُوْلُ فَخُذُوْهُۗ-وَ مَا نَهٰىكُمْ عَنْهُ فَانْتَهُوْاۚ
तर्जमए कन्ज़ुल इ़रफ़ान : और जो कुछ तुम्हें रसूल अ़त़ा फ़रमाएं, वोह लो और जिस से मन्अ़ फ़रमाएं, उस से बाज़ रहो और अल्लाह से डरो, बेशक अल्लाह का अ़ज़ाब सख़्त है ।
पारह 22, सूरतुल अह़ज़ाब की आयत नम्बर 36 में इरशादे ख़ुदावन्दी है :
وَ مَا كَانَ لِمُؤْمِنٍ وَّ لَا مُؤْمِنَةٍ اِذَا قَضَى اللّٰهُ وَ رَسُوْلُهٗۤ اَمْرًا اَنْ یَّكُوْنَ لَهُمُ الْخِیَرَةُ مِنْ اَمْرِهِمْؕ-)پ۲۲،الاحزاب:۳۶(
तर्जमए कन्ज़ुल इ़रफ़ान : और किसी मुसलमान मर्द और औ़रत के लिये येह नहीं है कि जब अल्लाह और उस का रसूल किसी बात का फै़सला फ़रमा दें, तो उन्हें अपने मुआ़मले का कुछ इख़्तियार बाक़ी रहे ।
सदरुल अफ़ाज़िल, ह़ज़रते अ़ल्लामा मौलाना मुफ़्ती सय्यिद मुह़म्मद नई़मुद्दीन मुरादाबादी رَحْمَۃُ اللّٰہ ِتَعَالٰی عَلَیْہ फ़रमाते हैं : इस से मा'लूम हुवा कि