Book Name:Mojiza-e-Mairaj
صَلُّوْا عَلَی الْحَبِیْب! صَلَّی اللّٰہُ عَلٰی مُحَمَّد
प्यारे प्यारे इस्लामी भाइयो ! सिर्फ़ अ़रबों का दौर ही तो हमारे आक़ा صَلَّی اللّٰہُ عَلَیْہِ واٰلِہٖ وَسَلَّم का दौर नहीं था, अब तो हर ज़माना मेरे ह़ुज़ूरे पाक صَلَّی اللّٰہُ عَلَیْہِ واٰلِہٖ وَسَلَّم का है । इस दौर में दुन्या को तरक़्क़ी करनी थी, साइन्स दानों को आना था, महीनों के सफ़र घन्टों में त़ै होने थे, चांद और मिर्रीख़ तक पहुंचने के दावे होने थे, मुमकिन था कि आज का कोई शख़्स येह केहता कि अगर तुम्हारे नबी हमारे भी नबी हैं, इस दौर के भी नबी हैं, तो आज की साइन्स के एतिबार से ऐसा कौन सा मोजिज़ा है ? तो मेराज़ का मोजिज़ा वोह अ़ज़ीम मोजिज़ा है जिस का जवाब सारी दुन्या की साइन्स के पास भी नहीं है । येह मोजिज़ा हमारे आक़ा صَلَّی اللّٰہُ عَلَیْہِ واٰلِہٖ وَسَلَّم को अ़त़ा हुवा, इसी में आप صَلَّی اللّٰہُ عَلَیْہِ واٰلِہٖ وَسَلَّم ने जागती ह़ालत में सर की आंखों से अपने रब्बे करीम का दीदार किया ।
प्यारे प्यारे इस्लामी भाइयो ! क़ुरआने पाक में वाक़िअ़ए मेराज व मोजिज़ए मेराज के बाज़ ह़िस्से को पारह 15, सूरए बनी इसराईल की आयत नम्बर 1 में इस त़रह़ बयान फ़रमाया गया है :
سُبْحٰنَ الَّذِیْۤ اَسْرٰى بِعَبْدِهٖ لَیْلًا مِّنَ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ اِلَى الْمَسْجِدِ الْاَقْصَا الَّذِیْ بٰرَكْنَا حَوْلَهٗ لِنُرِیَهٗ مِنْ اٰیٰتِنَاؕ-اِنَّهٗ هُوَ السَّمِیْعُ الْبَصِیْرُ(۱)
तर्जमए कन्ज़ुल इ़रफ़ान : पाक है वोह ज़ात जिस ने अपने ख़ास बन्दे को रात के कुछ ह़िस्से में मस्जिदे ह़राम से मस्जिदे अक़्सा तक सैर कराई जिस के इर्द गिर्द हम ने बरकतें रखी हैं ताकि हम उसे अपनी अ़ज़ीम निशानियां दिखाएं, बेशक वोही सुनने वाला, देखने वाला है ।
ह़ज़रते मौलाना सय्यिद मुफ़्ती मुह़म्मद नई़मुद्दीन मुरादाबादी رَحْمَۃُ اللّٰہِ عَلَیْہ ने "ख़ज़ाइनुल इ़रफ़ान" में इस आयते करीमा के तह़्त जो कुछ इरशाद फ़रमाया, आइए ! उस का ख़ुलासा सुनते हैं : मेराज शरीफ़ नबिय्ये करीम صَلَّی اللّٰہُ عَلَیْہِ واٰلِہٖ وَسَلَّم का एक मोजिज़ा है, येह अल्लाह पाक की ऐसी अ़ज़ीम नेमत है जिस से ह़ुज़ूर صَلَّی اللّٰہُ عَلَیْہِ واٰلِہٖ وَسَلَّم का अल्लाह पाक की बारगाह में इन्तिहाई क़रीब होना ज़ाहिर होता है और येह वोह मर्तबा है जो मख़्लूक़ में आप عَلَیْہِ السَّلَام के सिवा किसी और को नहीं मिला । मेराज शरीफ़ बेदारी (जागने) की ह़ालत में जिस्म और रूह़ दोनों के साथ हुई । (ख़ज़ाइनुल इ़रफ़ान, पा. 15, बनी इसराईल, तह़्तुल आयत : 1)
मेराज शरीफ़ का इन्कार करना कैसा ?
मज़ीद फ़रमाते हैं : सत्ताईसवीं रजब को मेराज हुई । मक्कए मुकर्रमा से ह़ुज़ूरे पुरनूर (صَلَّی اللّٰہُ عَلَیْہِ واٰلِہٖ وَسَلَّم) का बैतुल मुक़द्दस तक शब (यानी रात) के छोटे ह़िस्से में तशरीफ़ ले जाना क़ुरआन से साबित है, इस का मुन्किर (इन्कार करने वाला) दाइरए इस्लाम से बाहर हो जाता है और आसमानों की सैर और मनाज़िले क़ुर्ब में पहुंचना अह़ादीसे मश्हूरा से साबित है जो ह़द्दे तवातुर के क़रीब पहुंच गई हैं, इस का मुन्किर (इन्कार करने वाला) गुमराह है । (ख़ज़ाइनुल इ़रफ़ान, पा. 15, सूरए बनी इसराईल, तह़्तुल आयत : 1, स. 525, मुलख़्ख़सन) उ़रूज या एराज, यानी सरकारे मदीना صَلَّی اللّٰہُ عَلَیْہِ واٰلِہٖ