Book Name:Eman Ki Hifazat
صَلُّوْا عَلَی الْحَبِیْب! صَلَّی اللّٰہُ عَلٰی مُحَمَّد
प्यारे प्यारे इस्लामी भाइयो ! बयान कर्दा अह़ादीसे करीमा से मा'लूम हुवा ! ईमान की ह़िफ़ाज़त करने के मुआ़मले में सुस्ती नहीं करनी चाहिये और इस ख़ुश फ़हमी में नहीं रहना चाहिये कि हम तो पैदा ही मुसलमान हुवे हैं, हमारे मां-बाप, दादा, दादी और ख़ानदान के सभी लोग मुसलमान थे, लिहाज़ा हम भी मुसलमान हैं और मुसलमान ही मरेंगे । मुमकिन है सारी ज़िन्दगी हम ईमान पर क़ाइम रहें, ज़िन्दगी भर ख़ूब नेकियां भी करते रहें मगर मरने से पहले مَعَاذَ اللّٰہ ज़बान से कोई कुफ़्र निकल जाए और ईमान पर ख़ातिमा नसीब न हो । लिहाज़ा हमें हर वक़्त अपने ईमान की सलामती के लिये दुआ़एं और मरते वक़्त ईमान की ह़िफ़ाज़त के लिये फ़िक्र करनी चाहिये । उ़लमाए किराम फ़रमाते हैं : जिस को ज़िन्दगी में सल्बे ईमान या'नी ईमान छिन जाने का ख़ौफ़ न हो, नज़्अ़ या'नी मरते वक़्त उस का ईमान सल्ब हो जाने (या'नी छिन जाने) का शदीद ख़त़रा है । (मल्फ़ूज़ाते आ'ला ह़ज़रत, स. 495, बित्तग़य्युर क़लील)
लेकिन अफ़्सोस ! आज कल हमारी अक्सरिय्यत को ईमान की सलामती की फ़िक्र ही नहीं, फ़िक्र है तो अपना बैंक बेलन्स (Bank Balance) बढ़ाने की, फ़िक्र है तो एक दूसरे पर दुन्यवी बरतरी ह़ासिल करने की, फ़िक्र है तो इ़ज़्ज़त व शोहरत कमाने की, ह़ालांकि हम में से किसी के पास इस बात की गारंटी नहीं कि मरते वक़्त हमारा ईमान सलामत भी रहेगा या नहीं । مَعَاذَ اللّٰہ गुनाहों की नुह़ूसत के सबब हमारा ईमान बरबाद हो गया, तो क्या करेंगे ? ह़ज़रते सय्यिदुना अबू दर्दा رَضِیَ اللّٰہُ عَنْہ फ़रमाया करते थे : ख़ुदा पाक की क़सम ! कोई शख़्स इस बात से मुत़मइन नहीं हो सकता कि मरते वक़्त उस का ईमान बाक़ी रहेगा या नहीं । (کیمائے سعادت،پیدا کردن سوء خاتمت،۲ /۸۲۵ )
ह़ुज्जतुल इस्लाम, ह़ज़रते सय्यिदुना इमाम मुह़म्मद ग़ज़ाली رَحْمَۃُ اللّٰہ ِ عَلَیْہ फ़रमाते हैं : जब इन्सान पर रूह़ निकलने की कैफ़िय्यत त़ारी होती है, उस वक़्त शैत़ान अपने शागिर्दों को ले कर दुन्या से कूच कर जाने वाले रिश्तेदारों मसलन वालिदैन, बहन भाइयों और दोस्तों की शक्लों में आ पहुंचता है । शैत़ान उस से कहता है : ऐ फ़ुलां ! तू तो अ़न क़रीब मर जाएगा जब कि हम तुझ से पहले मौत का मज़ा चख चुके हैं, लिहाज़ा तू (इस्लाम को छोड़ कर) फ़ुलां दीन इख़्तियार कर ले कि येही दीन अल्लाह करीम की बारगाह में मक़्बूल है । अगर मरने वाला उस की बात नहीं मानता, तो वोह और उस के शागिर्द दूसरे दोस्तों की शक्ल में आ कर कहते हैं : तू (इस्लाम छोड़ कर) फ़ुलां दीन इख़्तियार कर ले । यूं वोह उसे हर दीन के अ़क़ाइद याद दिलाते हैं, तो उस लम्ह़े जिस के ह़क़ में (ईमान से) फिर जाना लिखा होता है, वोह उस वक़्त डगमगा जाता और बात़िल मज़हब इख़्तियार कर लेता है । ( مجموعۃ رسائل الامام الغزالی،ص۵۱۱ ملخصاً)
اَللّٰھُمَّ اَجِرۡنِیۡ مِنَ النَّارo
ऐ अल्लाह पाक ! मुझे (दोज़ख़ की) आग से नजात अ़त़ा फ़रमा !