Book Name:Mot ke Holnakian Shab-e-Bra'at

बुलन्द कोठी व गाड़ी कुछ काम न आएंगी, इस बात का भी शुऊ़र है लेकिन न जाने क्यूं ग़फ़्लत की नींद सोए हुवे हैं ?

          मन्क़ूल है कि अगर मौत की तक्लीफ़ का एक क़त़रा दुन्या के पहाड़ों पर रख दिया जाए, तो सब के सब पिघल जाएं । (इह़याउल उ़लूम, 5 / 209) अब ज़रा सोचिये ! वोह मौत कि जिस की तक्लीफ़ के एक क़त़रे का येह ह़ाल है कि बुलन्दो बाला पहाड़ जिस की ताब न ला कर पिघल जाएं, तो येह तक्लीफ़ इन्सान के लिये किस क़दर अज़िय्यत का बाइ़स बनती होगी ? दर ह़क़ीक़त मौत की शिद्दत व तकलीफ़ तो वोही जान सकता है जो इस का ज़ाइक़ा चख ले मगर जिस ने मौत का ज़ाइक़ा नहीं चखा वोह ख़ुद को पहुंचने वाले दर्द और तक्लीफ़ से इस का अन्दाज़ा कर सकता है ।

          ह़ज़रते सय्यिदुना इमाम मुह़म्मद बिन मुह़म्मद ग़ज़ाली عَلَیْہِ رَحْمَۃُ اللہِ الْوَالِی फ़रमाते हैं : इस का अन्दाज़ा यूं हो सकता है कि जिस्म का जो ह़िस्सा बे जान हो चुका हो उसे दर्द का एह़सास नहीं होता और जिस में जान हो, उसे दर्द का एह़सास होता है, जो कि दर अस्ल रूह़ को होता है, लिहाज़ा जब कोई ह़िस्सा ज़ख़्मी होता है या आग से जल जाता है, तो येही जलन या तक्लीफ़ रूह़ की जानिब बढ़ती है और जिस क़दर बढ़ती है, उसी क़दर रूह़ तक्लीफ़ मह़सूस करती है । अन्दाज़ा करो कि (इस) सूरत में तक्लीफ़ गोश्त, ख़ून और दीगर ह़िस्सों में तक़्सीम होती है और रूह़ तक उस का कुछ ही ह़िस्सा पहुंच पाता है जब कि अगर येही तक्लीफ़ दीगर ह़िस्सों को न पहुंचे और बराहे रास्त रूह़ तक पहुंच जाए, तो उस की तक्लीफ़ और शिद्दत का आलम क्या होगा ?

(इह़याउल उ़लूम, 5 / 207)

          मज़ीद फ़रमाते हैं : नज़्अ़ की तकालीफ़ बराहे रास्त रूह़ पर ह़म्ला आवर होती हैं और फिर येह तकालीफ़ तमाम बदन में यूं फैल जाती हैं कि हर हर रग, पठ्ठे, ह़िस्से और जोड़ से रूह़ खींची जाती है नीज़ हर बाल की जड़ और सर से पाउं तक की खाल के हर ह़िस्से से रूह़ निकाली जाती है ।

(इह़याउल उ़लूम, 5 / 207)